Sunday 24 January 2010

‘... पापा, कोई अच्छे नेता तो नहीं थे ज्योति बसु ’

ज्योति बसु के द्वारा मरणोपरांत अंगदान किए जाने के बाद पश्चिम बंगाल में अंगदान करने की घोषणा करने वालों की कतार लग गई है। ज्योति बसु ने पश्चिम बंगाल के एक एनजीओ गण दर्पण से अंगदान का वादा किया था। इसी वादे के तहत ज्योति बसु की अंतिम यात्रा के बाद उनका शरीर कोलकाता के एसएसकेएम हास्पीटल को सौंप दिया गया।

गण दर्पण मरणोपरांत अंगदान करने के लिए लोगों को प्रेरित करने के काम में 1985 से लगा हुआ है। 1985 से ज्योति बसु की मृत्यु के पहले तक 1400 लोग अंगदान का वादा गण दर्पण से कर चुके थे।  लेकिन ज्योति बसु की मृत्यु के बाद के दो दिनों के अंदर ही तीन सौ लोग अंगदान का वादा लेकर सामने आए। निश्चित तौर पर ज्योति बसु से प्रेरित होकर ही इतनी बड़ी संख्या में लोगों ने पारंपरिक अवधारणाओं को त्यागने का साहस दिखाया है। यह एक बड़ी बात है।

इतनी बड़ी संख्या में अंगदान करने की घोषणा से जुड़ी खबर जब मैं अपनी बेटी को पढ़ने को दिया, तो उसका सवाल सुन कर स्तब्ध हो गया। बेटी का सवाल था, ‘पापा, ज्योति बसु कोई बहुत अच्छे नेता तो नहीं थे न।’ मैंने जब उससे पूछा कि यह तुम कैसे कह रही हो, तो उसका जवाब था, ‘अखबारों में जो ढेर सारे लेख पढ़े, उससे तो ऐसा ही लगता है।’ बेटी के इस जवाब ने मुझे अंदर तक झकझोर कर रख दिया।

मेरी बेटी अभी ग्यारहवीं की छात्रा है। राजनीति में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं। लेकिन खुद को सामयिक घटनाओं से वाकिफ रखने के लिए वह घर पर रोजाना आने वाले लगभग हर अखबार को देखती-पढ़ती है। बेटी के जवाब के बाद जब मैंने सोचा तो एहसास हुआ कि देश की किशोर - युवा पीढ़ी को मीडिया से किस तरह की जानकारी मिल रही है। अखबार पढ़ने वालों से लेकर देश की पूरी आबादी में इसी आयु वर्ग के लोग सबसे अधिक हैं। बार-बार इस बात को दोहराया जाता है कि इसी वर्ग पर देश का भविष्य निर्भर करता है। यह वर्ग जैसा बनेगा, वैसा ही देश बनेगा। यहां पर सवाल उठता है, हमारी मीडिया जो जानकारी परोस रही है , उससे भविष्य का देश कैसा बनेगा। 

निश्चित तौर पर अखबारों में और खासकर अंग्रेजी अखबारों में ज्योति बसु की मृत्यु के बाद जितनी बातें छपी हैं, उनमें उन्हें विकास विरोधी साबित करने की ही कोशिश हुई है। बहुत मामूली तरीके से उनके सही कामों को हल्के ढ़ंग से कहीं-कहीं लिखा गया है।

इस बात को कोई खास अहमियत नहीं दी गई कि ज्योति बसु ने मर कर भी दो लोगों की आंखों को रोशनी दी। अगर उनका अधिकांशः अंग बेकार नहीं हुआ होता तो कई और लोगों को नई जिंदगी मिलती। मीडिया में इस बात को लेकर कोई खास चर्चा नहीं हुई कि आज कितने लोग हैं जो अपनी बात और विश्वास पर अडिग रहते हैं। यहां तो ऐसे नास्तिकों की भरपार है जो कुर्सी पाने के पहले तो प्रगतिशीलता का जामा पहन कर खुद को नास्तिक बता देते हैं, लेकिन कुर्सी मिलते ही उनकी सोच और मिजाज बदल जाते हंै। कुर्सी कहीं चली न जाए, इसके लिए वे उन हर कर्मों को करने को तैयार रहते हैं, जिसके पहले वे विरोधी हुआ करते थे।

यह गिनाने की जरूरत किसी ने नहीं समझी कि आज देश में कौन ऐसा नेता है जो अपनी कुर्सी पूरी तरह सुरक्षित रहने के बावजूद पार्टी से कहे कि मुझे पदमुक्त कर दो, मेरा शरीर अब काम का  बोझ बरदाश्त नहीं कर पा रहा। उन नमूनों की कोई चर्चा नहीं की गई जो अच्छी तरह इस बात को जानते हुए भी कि उन्हें सदन का बहुमत हासिल नहीं है, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हो गए। उन लोगों के बारे में नहीं बताया गया जो लोग बूढ़े होने के बावजूद कुर्सी पर बरकरार हैं और कुर्सी पर रहते हुए ही अपना उत्तराधिकार अपने बेटे-बेटियों को दे रहे हैं।

खुल कर चर्चा नहीं की गई कि ज्योति बसु जब पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बने थे तो उनका राज्य अनाज के मामले में आत्मनिर्भर नहीं था। लेकिन बसु सरकार ने आपरेशन बरगा के जरिए भूमि सुधार का जो ऐतिहासिक काम किया, बटाइदारों और खेत मालिकों का जो रिश्ता बनाया , उसके कारण जो हरित क्रांति आई उसके बूते पश्चिम बंगाल आज अनाज का निर्यात करता है।

इस बात को स्वीकारने की कोशिश नहीं की गई कि पश्चिम बंगाल ही नहीं, बल्कि देश के स्तर पर सत्ता के एकाधिकार को तोड़ने में ज्योति बसु ने अहम भूमिका निभाई। साझा सरकार चलाने की मिसाल कायम की। ज्योति बसु 23 सालों तक लगातार पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे। शुरुआती वर्षों में उनकी पार्टी माकपा को अकेले बहुमत नहीं था। इस कारण उन्होंने साझा सरकार चलाई। लेकिन बाद के वर्षों में माकपा को अकेले बहुमत हासिल हो जाने के बाद भी वाम मोर्चे के घटकों को  उन्होंने सरकार से बाहर जाने को नहीं कहा। बल्कि उनके साथ ही सरकार चलाते रहे। इसके अलावा दिल्ली में जितनी भी साझा सरकारें बनी उसमें ज्योति बसु ने बहुत ही सकारात्मक भूमिका अदा की।

आज जब देश में कुर्सी के लिए कुछ भी कर देने वालों की भीड़ है, वैसे राजनीतिक माहौल में ज्योति बसु इस देश के इकलौता नेता थे, जिन्हें लोकसभा में बहुमत वाला गठबंधन प्रधानमंत्री की कुर्सी देने को तैयार था, लेकिन पार्टी का आदेश मानते हुए वे उस कुर्सी पर नहीं गए।

ज्योति बसु ने सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष गठबंधन को मजबूती प्रदान की। उनका राज्य पश्चिम बंगाल हमेशा सांप्रदायिक दंगों से मुक्त रहा। फिर गुजरात दंगों के बाद केंद्र में सांप्रदायिक ताकतों को सत्तासीन होने से रोकने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई।

लेकिन इन सारी खूबियों के बावजूद वे ‘विकास पुरूष’ नहीं बन सके। हमारी मीडिया को सबसे बड़ी यही शिकायत है। इस शिकायत को पुष्ट करने की कोशिश में मीडिया उन्हें विकास का विरोधी साबित करने पर तुली हुई है। जबकि ज्योति बसु ने 2000 में कुर्सी छोड़ दी थी। उस वक्त तक देश का औद्योगिक विकास नए रास्ते ( उदारीकरण) पर रफ्तार नहीं पकड़ सका था। लगभग हर जगह एक ही जैसी स्थिति थी। फिर भी कम्युनिस्ट लगाम के कारण निवेश की मुश्किलें थीं। ज्योति बसु की विफलता रही कि वे औद्योगिक विकास का वैकल्पिक माडल अपने शासनकाल में नहीं दे सके। लेकिन इस विफलता के कारण उन्होंने दूसरे मोर्चों पर जो काम किया, उसे नजरअंदाज कर जाना कतई उचित नहीं है। यह सही है कि बेलगाम निवेश को रोक कर विकास कैसे हो, यह ज्वलंत प्रश्न दिनोंदिन ज्यादा जटिल होता जा रहा है। ज्योति बसु की यह जो विफलता रही, उसे ठीक करने का प्रयास देश के हित में नितांत जरूरी है।   

3 comments:

Ashok Kumar pandey said...

अपने शुरुआती दौर में वह निश्चित तौर पर सर्वांगीण विकास की उस धारा के पक्षधर थे जिसमे विकास का मतलब बड़े बाज़ार और चमकते मांल नहीं बल्कि आम ग़रीब और किसान जनता का विकास था।

नयी पीढ़ी को विकास के जो मायने समझाये जा रहे हैं वे ऐसे ही निष्कर्ष तक पहुंचायेंगे…

Anonymous said...

accha

Unknown said...

bahut achha