Wednesday 19 May 2010

ठहरा हुआ चेहरा

विनोद खेतान

हमारी क्या पहचान है ? हमारी कितनी तरह की पहचान है ? उसका उत्तर कभी बहुत स्पष्ट होता है  और कभी बिल्कुल असंभव। पहचान का यह प्रश्न जेहन में उभरा, जब ज्यादातर अखबारों में कुछ इस तरह के शीर्षक से खबर आई- ‘सांभा नहीं रहा ।’ एक मशहूर फिल्म ‘सांभा’ का सांभा गब्बर सिंह के धांसू संवादों से अपने कमतर संवादों को संबल देता। आश्चर्य होता है कि किसी की पूरी उम्र और अभिनय की लंबी यात्रा में एक ऐसा महत्वपूर्ण पड़ाव आता है जो लगभग उस व्यक्ति का पर्याय बन जाता है। या यूं कहें कि वह व्यक्ति उस काल्पनिक पात्र का पर्याय हो जाता है। जैसे मैकमोहन का सांभा अवतार।

साहित्य-कला में न जाने कितने ऐसे प्रतिमान हैं कि हम चाह कर भी कल्पना को सच से अलग नहीं कर सकते-अगर सच हो तो भी। कई पीढ़ियों का बचपन राजा रवि वर्मा की कल्पना से मूर्त हुई सरस्वती या लक्ष्मी की पूजा करते बीता होगा। उन चित्रों से अलग उनकी देवत्व की कल्पना करना मुश्किल है। रचना जगत में कई स्थितियां ऐसी आती हैं कि कुछ नाम नई पहचान बन जाते हैं। वात्स्यायन जेल में न होते और उनकी कहानियों के प्रकाशन के पूर्व जैनेंद्र को न सूझता तो अज्ञेय हमें नहीं मिलते। शायद उनके न चाहने के बावजूद अज्ञेय वात्स्यायन से ज्यादा जाने गए। क्या दोनों दो थे ? शरतचंद्र के एक पात्र अपने कुल नाम से ज्यादा मध्यम नाम के दास ‘देवदास’ बन गए। किसी आहत प्रेमी को हम सिर्फ देव कह कर वहां नहीं पहुंचा सकते, जहां ‘देवदास’ की तड़प पहुंचती है। कुछ ऐसा होता है कि ये नाम, ये संज्ञाए पद बन जाते हैं, उपमान बन जाते हैं और इनके अर्थ का विस्तार हो जाता है।

प्रेमचंद के पात्रों के नाम पर तो बिज्जी ने अलग से बहुत कुछ लिखा है। ऐसा लगता है कि उन पात्रों का अस्तित्व उन नामों के बगैर अधूरा रह जाता। प्रेमचंद के लगभग सभी पात्र कहानियों से निकलकर उपन्यासों से बाहर आकर एक अलग संसार रचते हैं और अगर आप उसी संसार में अगर सिर्फ नाम बदल दें तो पूरी भंगिमा बदल जाती है। यहां तक कि संदर्भ भी खोने लगते हैं। मीर रोशन अली और मिर्जा सज्जाद अली की जगह आप शतरंज के विश्व विजेता विश्वनाथन आनंद और गैरी कास्पारोव को रख कर देखिए। ऐसा लगेगा कि वाजिद अली शाह का समय था ही नहीं। कभी-कभी लगता है कि इन चरित्रों की छाप इतने गहरे उतरती है कि यह हमारे अवचेतन का हिस्सा हो जाता है। क्या ‘ब्रांड’ इसे ही कहते हैं और क्या बाजार इसी मनोविज्ञान का फायदा उठा कर विज्ञापन का एक काल्पनिक संसार नहीं रचता ?

व्यक्तिवाचक संज्ञाएं कई बार तो एकाधिक पीढ़ियों के मानस पटल पर इतनी घनीभूत होती हैं कि लगभग समूहवाचक संज्ञाओं का आभास देती हैं। धीरे-धीरे उनके संदर्भ पीछे रह जाते हैं और ऐसे नाम अपनी ध्वनियों के साथ एक खास पहचान लिए हम में गूंजते रहते हैं। कभी-कभी इनसे बिडंबनात्मक स्थितियां भी उपजती हैं। चांद पर मनुष्य के पहले कदम से नील आर्मस्ट्रांग किवदंती बन गए और एडविन एलड्रिन उसी महाअभियान में शरीक होकर भी थोड़े पीछे रह गए। और फिर विमान में बैठे माइकल कौलिन्स इतिहास के पन्नों में दर्ज हुए, लेकिन स्मृति और आख्यान में अक्सर अनुपस्थित पाए गए।

अक्सर इस किस्म की आकर्षक और रोचक पहचान में हमारी कल्पना के भी आयाम होते हैं-लगभग  व्यक्तिगत। फिर ऐसे में तो प्रतीक उभरते हैं, चाहें वे दृश्य हों या श्रव्य, वाचिक हों या मौखिक, स्थान-काल की सीमाओं से बहुत आगे निकल जाते हैं। ऐसे में लैला-मजंनू, हीर-रांझा, शौरी-फरहाद किसी एक भाषा या क्षेत्र के नहीं रह जाते। रवीद्रनाथ ठाकुर नोबेल, जन-गण-मन और बंगाल की परिधि में नहीं समाते।

कुछ ऐसी अनुभूतियां होती हैं, जिनका प्रभाव लगभग सार्वभौमिक होता है। फिर आर्कमिडिज का ‘यूरेका’ हर व्यक्ति में कभी न कभी छलांग लगाता है-आवरण के संकोच के बावजूद। शेक्सपियर का यक्ष-प्रश्न ‘ टू बी और नाॅट टू बी ’ सबके सामने खड़ा होता है और हर युग में ऐसे मौके आते हैं, जब मुश्किलें और उम्मीदें एक साथ उफान पर होती हैं। दूसर तरफ जूलियस सीजर का ‘ब्रूटस’ विश्वासघात का सबसे प्रामणिक विशेषण बन जाता है। पहचान के ये स्थाई भाव पात्रों की आत्मा में समा जाते हैं। ‘पंच परमेश्वर’ के अलगू चैधरी और जुम्मन शेख न्याय की निष्पक्षता को एक रुहानी उंचाई देते हैं और हामिद के चिमटे में छिपी भावना पूरी ‘ईदगाह’ में बड़े मियां के सजदे में झुकने से बड़ी इबादत हो जाती है। काल्पनिक पात्र सजीव हो जाते हैं और कथानकों के मामूली चरित्र रोजमर्रे में लोगों की जुबान पर नायक और महानायक की तरह हैं।

संज्ञाओं का यह रूपांतर चमत्कृत  करता है। व्यक्तिवाचक से समूहवाचक या भाववाचक होने की इस प्रक्रिया में न जाने कितनी तरंगे अंतर्निहित होती होंगी। शायद हम सब मैकमोहन पैदा होते हैं और हम सब में कोई ऐसा तत्व होता है जो सांभा बन कर हमसे आगे निकल जाता है। इन संभावनाओं को शब्द, ध्वनि, रूप आकार देने वाला कोई सहयात्री मिल जाए तो । तभी शायद कोई दुष्यंत कुमार किसी कमलेश्वर को कह उठता है-‘ हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था, कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए....।’

                                                              जनसत्ता से (साभार)