Wednesday, 5 June 2019

याद आ रहा है 1971 का चुनाव।पांचवी लोकसभा चुनाव का चुनाव 1972 के बजाय 1971 में ही हो गया था। इस चुनाव में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस (आई) को प्रचंड जीत मिली थी। लोकसभा के कुल 518 सीटों में से 352 पर इंदिरा कांग्रेस के उम्मीदवार जीते थे।
उस वक्त मैं 14 साल का था। लेकिन मन में कांग्रेस विरोध कुलबुलाने लगा था। जिले के  अखबार में लिखना भी शुरू कर चुका था।   इंदिरा गांधी को प्रचंड विजय मिली तो एक छोटे साप्ताहिक गया समाचार में मेरा  लेख छपा। इस लेख में मैंने लिख दिया था, "जनता ने लोकतंत्र के साथ जो गद्दारी की है उसकी सजा उसे मिलेगी।" बाद में सयाना हुआ और समझ बढ़ी तो  मुझे अपनी इस मूर्खता का एहसास हुआ। यह एक किशोरमन की त्वरित प्रतिक्रिया थी जिसमें विवेक पर गुस्सा हावी था। लेकिन आज देख रहा हूँ कि मोदी को शानदार कामयाबी मिलने के बाद स्थापित दलों के साथ-साथ  पढ़े-लिखे बौद्धिक लोग भी इस जीत को पचा नहीं पा रहे तो आश्चर्य होता है । सोचना पड़ रहा कि एक किशोरमन की प्रतिक्रिया और बौद्धिक प्रतिक्रिया में अंतर कहाँ रह गया है। आज कोई जनता को मूर्ख बता रहा तो कोई कह रहा लोकतंत्र मूर्खों का ही शासन है। तरह-तरह से जनता को कोसा जा रहा और जनादेश को स्वीकार करने या उसका सम्मान करने से इंकार किया जा रहा। यह सब अपना दोष दूसरे पर मढ़ने जैसा है। याद रखना चाहिए कि जनादेश का सम्मान नहीं कर आप लोकतंत्र में ही अविश्वास कर रहे। सम्मान का मतलब नतमस्तक होना नहीं होता। आपके पास अगले चुनाव में जनादेश को अपने पक्ष में कर लेने का पूरा मौका है। 1971 के बाद 1977 में हुए चुनाव का नतीजा याद होगा। लेकिन अगर आप जनता को ही अविश्वास की नजरों से देखने लगेंगे, उसे मूर्ख बताकर अपने अहं की तुष्टि में लग जायेंगे तो 1977 की तरह 2024  नहीं हो पायेगा। आपको सोचना है कि क्या आप 2024 को 1977 बनाने को तैयार हैं? फिलहाल तो उसका कोई संकेत नहीं मिल रहा। लेकिन वक्त है । अनुभवों से सीख लेना होगा।खुद में सुधार करना होगा। तब वह हो सकता है। जनादेश का सम्मान कीजिए और अगले जनादेश को अपने पक्ष में करने की कोशिश शुरू कीजिए। जनता और जनादेश को नकार कर नया जनादेश नहीं हासिल कर सकते।

Sunday, 12 May 2019


चाहत और आकलन में अंतर होता है।चुनाव को लेकर मेरी चाहत और निरंतर चल रहे आकलन के बीच गहरी खाई बनी रही। मैं इस खाई को पाटने की कोशिश करता रहा, लेकिन नाकामयाब रहा। मेरी चाहत और अनुमान का अंतर बना रहा।
मेरे आकलन के अनुसार आभासी दुनिया में मोदी विरोध की जो लहर चल रही वह जमीन पर नहीं दिख रही। विपक्ष मोदी के खिलाफ मुद्दों को सही तरीके से उछालने और वोटरों को प्रभावित करने में लगभग नकारा साबित हुआ है। विपक्ष के आभासी हमलों का कोई  असर वोट पर पड़ता नहीं दिख रहा। अगर लहर की बात करें तो वह सिर्फ मोदी की है। हालांकि उसकी रफ्तार 2014 वाली नहीं है। इस लहर के खिलाफ अगर जमीन पर कहीं कुछ है तो वह जातीय समीकरण। लेकिन यह जातीय समीकरण  विशेष रूप से युवाओं को प्रभावित नहीं कर पा रहा। जातीय घेरे से इतर जाकर गैर राजनीतिक युवाओं का बहुलांश मोदी के साथ है। बहुत कम क्षेत्र हैं जहां उम्मीदवार का व्यक्तित्व प्रभावी हो रहा है।  अब मोदी की कम रफ्तार वाली लहर को जातीय समीकरण कितना बांध पाता है यह सही - सही 23 मई को पता लगेगा।
मुझे पता है मेरी चाहत की तरह मेरे अधिकांश मित्रों को भी मेरा यह आकलन पच नहीं पायेगा। लेकिन मुझे बता देने से क्या फर्क पड़ता ।मैं कोई तीस मार खां तो हूँ नहीं जो इससे किसी को कोई नुकसान होगा।