Tuesday 28 September 2021

रिश्ते

 रिश्ते


रात आठ बजे पटना से गुरारू आया तो मेरे टेबल पर एक लिफाफा रखा था। लिफाफे पर टर्क्वॉइज़ ब्लू स्याही से लिखे पते की हैंडराइटिंग देख समझने में देर नहीं लगी की चिट्ठी किसकी है। आखिर ऐसा ही लिफाफा लगभग दो साल से हफ्ता दस दिन में  तो जरूर ही आता रहा था। देश दुनिया और लेखन के हालचाल से लेकर घर- परिवार, कॉलेज की खबरें कमसे कम दो पेज में तो जरूर रहती थी। कभी-कभी नई कविता भी। इस चिठ्ठी की जितनी प्रतीक्षा रहती थी उतनी ही पढ़ने की उत्सुकता और फिर जवाब देने की तत्परता। लेकिन उस दिन तो लिफाफा खोलते ही सन्न रह गया। दो पेज की जगह दो लाइन की चिठ्ठी थी। लिखा था- "तुम अब मुझे पत्र नहीं लिखना कभी। बहुत दुःखी हूं। मेरे घर वालों ने मुझे गलत समझ लिया है।"


इस दो लाइन ने ऊपर से नीचे तक झकझोर कर रख दिया। लगा मेरे कारण वह बेवजह परेशान हो रही। लेकिन उसने  कुछ डिटेल तो बताया ही नहीं। और मुझे चिठ्ठी लिखने को भी मना कर दी।  उसे कैसे समझाऊँ । कुछ समझ मे नहीं आ रहा था। लेकिन बाद में उसकी चिठ्ठियां लगातार आती रही।  हर चिठ्ठी के अंत मे यह जरूर लिखा रहता था ," तुम पत्र का जवाब मत देना।  मुझे गलत मत समझना।" इस एक तरफे संवाद और उसकी चिठ्ठियों में झलकने वाली मनःस्थिति को लेकर मैं खुद को बहुत ही बेबस असहाय महसूस करता था। 


उसके शहर जाकर मिलने की कोशिश भी तो नहीं कर सकता था। वह रहती थी  मुजफ्फरनगर। मेरे शहर से  हज़ार किलोमीटर दूर। वहां जाकर मिलने और समझाने की  कोई गुंजाइश नहीं थी। मुझे बार-बार लगे हमलोगों की तो कभी मुलाकात भी नही हुई है। आज जैसा मोबाइल या वीडियो कॉल का भी वो जमाना नही था की कभी बात भी हुई होती। इतनी भावुक प्रगाढ़ता तो बस चिठ्ठियों के जरिये बन गई थी। उनदिनों हम दोनों बीए में पढ़ रहे थे। लेकिन बिल्कुल लीक से हटकर था हमारा रिश्ता। आम कहानियों से  भिन्न कहानी थी।  घटनाक्रम बिल्कुल सिनेमाई अंदाज वाला।


 1977 का साल था। उसी साल हमारा संपर्क युवा चिंतन के जरिये हुआ था।  बिहार आंदोलन के दौरान 1974 में  युवा विचार नाम का अनियतकालिक बुलेटिन मैं निकाला करता था। 1977 में सरकार बदली। तब मैं युवा चिंतन नाम से एक मासिक पत्रिका निकालने लगा । संभावित ग्राहकों एवं लिखने वालों की टोह विभिन्न पत्रिकाओं के जरिये लेता था। दिनमान, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान में पाठको का जो पत्र छपता था उसे पढ़कर एक अंदाज बनाता था की इनमे से किनकी दिलचस्पी युवा चिंतन में हो सकती है। जो नाम छांटता था उन्हें युवा चिंतन की प्रति भेजता था। अच्छा रिस्पॉन्स मिलता था। याद है इसी तरह संपर्क करने पर आज की स्थापित कवियत्री अनामिका ने अपनी एक कविता भेजी थी। वार्षिक सदस्यता शुल्क भी।


बस इसी तरीके से उसके पास भी युवा चिंतन की प्रति भेजा था। उसका कोई पत्र शायद साप्ताहिक हिंदुस्तान में छपा था। अंक भेजने के बाद उसने वार्षिक सदस्यता शुल्क भेजी। कोई रचना और पत्रिका का मुजफ्फरनगर प्रतिनिधि बनने के लिए आवेदन भी। वह प्रतिनिधि बनी । बाद में पत्रिका के करीब 20 वार्षिक ग्राहक भी बनाये। इसीतरह हमारा पत्राचार शुरू हुआ। उसने पहले ही पत्र में मुझे संपादक की जगह भैया और आप की जगह तुम कह संबोधित किया था। और इस तरह दो अनजानो के  रिश्ते की नींव पड़ी। युवा चिंतन तो कुछ महीनों बाद करना पड़ा। मैंने जानकारी के अभाव में भारत के समाचार पत्रों के निबंधक (आरएनआई)कार्यालय से टाइटल स्वीकृत कराए बगैर पत्रिका निकाल दी थी। जानकारी होने पर इसे बंद कर दिया। लेकिन हमारे बीच पत्राचार होता रहा। घर-परिवार के बारे में भी जानकारियों खबरों के साथ।


ऐसे में नए घटनाक्रम ने विचलित कर दिया था। कुछ महीने तक यही स्थिति बनी रही। करीब एक साल बाद तो उसके एक पत्र ने अत्यंत असमंजस की स्थिति में डाल दिया। उसने लिखा था, " घर वालों ने मेरी शादी तय कर दी है। हालांकि मैं एमए करना चाहती थी। शादी के बाद मैं ससुराल कंडाघाट चली जाऊंगी। यह हिमाचल प्रदेश के सोलन जिले में है। जिनसे शादी हो रही उनकी लिखने -पढ़ने में कोई रूचि नहीं। लेकिन वहां बड़ा बिजनेस है उनका। " अंत मे उसने लिखा था, " शादी में तुमको जरूर से आना है। कोई बहाना मुझे मंजूर नहीं होगा।"


मेरी तो गजब स्थिति हो गई। जिसने घर वालो की मनाही के कारण पत्र लिखने से मना कर रखा था इतने दिनों से वह शादी में बुला रही। वह भी इतनी दूर अनजान जगह। कई तरह की आशंकाएं मन मे उभरने लगी। तब मैंने उसे एक पत्र लिखा। सोचा जब शादी में बुला रही तो अब पत्र तो लिख ही सकता हूँ। मैंने लिखा "तुमने पत्र लिखने को मना कर दिया था।घर वालो को आपत्ति थी। और अब बुला रही हो।घर के लोगों से बात कर ली हो। सबकुछ डिटेल में बताते हुए अगले पत्र में मेरी शंकाओं को दूर करो।"इसके जवाब में उसने लिखा, " अपनी बहन पर भरोसा है तो बस चले आओ। बाकी मेरी जिम्मेवारी। टिकट कटा कर जल्दी बताओ कब आ रहे। शादी का कार्ड अंकल के नाम से भेज रही। हो सके तो सबको साथ लाना।" 


मैंने तमाम  तरह की आशंकाओं के बावजूद उसकी निश्चलता को तरजीह दी। अगले पत्र में लिख दिया ठीक है। मैं आ रहा। अब मेरे सामने समस्या थी की इतनी दूर जाना है पहली बार। दिल्ली और उसके आगे जाना दूर की बात, दिल्ली गये किसी व्यक्ति से जान-पहचान तक नहीं। ऐसे में घर मे क्या बताऊंगा। बहुत सोचने पर एक तरीका सूझा। मैं पटना कॉलेज में पढ़ने लगा था तब युवाओं के लिए पटना से प्रकाशित मासिक पत्रिका कृतसंकल्प का सहायक संपादक भी हो गया था। तो सोचा घर पर यही बता देता हूँ कि कृतसंकल्प के काम से दिल्ली जाना है। यही सोचकर कालका मेल का टिकट ले लिया। गया से दिल्ली  का टिकट। पटना से गुरारू घर आया । घर पर बताया की मैगजीन के काम से दिल्ली जाना है। तबतक पापा के नाम भेजा उसका शादी का कार्ड भी आ चुका था। मैं दिल्ली जाने की बात बताया तो माँ पूछी की दिल्ली से मुजफ्फरनगर कितनी दूर है। मैंने कहा ज्यादा दूर नहीं है। तब वो बोली की ज्यादा दूर नही है तो वहां भी चले जाना। मधु की शादी का कार्ड आया है। चिठ्ठी भी लिखी है। बुलाई है। मन ही मन कितना खुश हुआ बता नही सकता।


दूसरे दिन रात दून एक्सप्रेस से गया आ गया। कालका मेल 4 बजे सुबह आती थी। ट्रेन आयी और मैं रवाना हो गया। लेकिन रास्ते भर  तरह -तरह की आशंकायें मन मे उभरती रही। बार -बार लगे कहीं मधु ने अपनी भावुकता में बुला लिया हो और घर मे कुछ गड़बड़ हुआ तो क्या होगा।  बहरहाल रात में दिल्ली पहुंचा। वहां से मुजफ्फरनगर का ट्रेन लिया। कोई पैसेंजर ट्रेन थी। सुबह -सुबह 4 बजे के आसपास मुजफ्फरनगर पहुंच गया। फिर भी सीधे मधु के घर जाने से डरता रहा। दो घण्टा स्टेशन पर ही रुका रहा। फिर रिक्शा कर पास के एक होटल में गया। चाय पी। नहाकर कुछ समय होटल में गुजारा। हालाँकि धुकधुकी लगी हुई थी।एक -एक पल गुजारना मुश्किल हो रहा था। खैर किसी तरह वक्त गुजारा। करीब 7.30 बजे 98, कम्बल वाला बाग के लिए निकल गया। होटल से कुछ खास दूर नहीं था यह पता। सो कुछ और समय बिताने के ख्याल से पैदल ही गया। थोड़ी देर में ही आखिर पूछते पाछते पहुंच ही गया। शादी की चहल-पहल के कारण घर पहचानने में दिक्कत नही हुई। वहां कुछ पल चुपचाप खड़ा रहा। एक थोड़ा ज्यादा सक्रिय नौजवान दिखे। उनके पास गया और बोला अजय जी से मिलना है। अपरिचित को देख उन्होंने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा। फिर कहा ,"मैं ही अजय हूँ। आप?"

"  मैं विपेंद्र। बिहार से आया हूँ।"

" अच्छा-अच्छा।अंदर चलिये विपेंद्र जी।" मैं  अपनी तमाम आशंकाओं को दबाये उनके साथ हो लिया।  दरवाजे के पास ही एक लड़की खड़ी थी। उससे उन्होंने कहा,"  विपेंद्र जी आ गये निशा। अंदर ले जाओ इन्हें।" 

इतना सुनते ही वह , "दीदी विपेंद्र भैया आ गए" बोलती हुई कमरे की ओर भागी। फिर उसके साथ मधु आयी। मुस्कुराई और बोली आज आ रहे हो। सामान नहीं है क्या कुछ तुम्हारे साथ।" मैं बोला सामान होटल में छोड़ दिया हूँ। " 

"अच्छा तुम शहर घूमने आए हो या मेरे पास। अभी नास्ता कर सबसे पहले होटल से सामान ले आना है तुम्हें। " इसीबीच उसने माँ, पापा और दो भाइयों से परिचय भी कराया। फिर एक कमरे में ले गयी। 


" ये मेरा कमरा है। तुम इसी में रहोगे। कुछ देर बात करते हैं। फिर मुझे रस्मों के लिए जाना होगा। तुम सामान लाकर यही आराम करना। रस्मों से फुर्सत मिलने पर बीच बीच में आऊँगी।"

 निशा नास्ता लायी। करीब एक घण्टे तक हम ढेर सारी बातें करते रहे। उसके बाद रस्मों के लिए उसका बुलावा आया। " तुम जाकर पहले सामान लाओ। फिर आते हैं।" इतना बोल वह कमरे से चली गयी।


मैं होटल जाने के लिए बाहर निकला । तभी मधु के छोटे भाई कृष्ण कुमार ने पूछा, कहाँ जा रहे। मैंने कहा, " होटल जा रहा सामान लाने। "

उन्होंने कहा ," ये आपके साथ जा रहे। मेरे बड़े जीजा जी है बृज किशोर खण्डेलवाल। ये कवि भी है। आपके साथ रहेंगे। आप बोर भी नहीं होंगे इनके साथ।" 

मैं उनके साथ होटल से लौटा।सामान ले जाकर उनलोगों ने मधु के कमरे में रख दिया। तबतक तो उसके सारे भाई-बहन, बहनोई सबसे घुलमिल गया। मुझे जरा  भी नहीं लग रहा था की मैं उस घर मे हूँ जिसके गार्जियनों ने चिठ्ठी लिखने पर पाबंदी लगा दी थी।

बाद के घँटों में मधु शादी के रस्मो में व्यस्त रही। बीच मे बस दो तीन बार बहुत कम समय के लिए बात हो सकी। रात शादी हुई और सुबह विदाई । गाड़ी में बैठी मधु घूंघट से रह- रहकर देख रही थी। विदाई के दर्द में मेरी आंखे छलछला गई। उसवक्त तक मेरी अपनी या चचेरी, ममेरी, फुफेरी किसी बहन की शादी नहीं हुई थी। बहन के विदाई के वक्त का पहला एहसास था।

 --------

उधर मधु विदा हुई और इधर मैं दिल्ली के लिए बस से चल दिया। पटना या गया का रिज़र्वेशन नहीं था। पता करने पर मालूम हुआ पटना के लिए कुछ देर बाद अपर इंडिया एक्सप्रेस है ।ट्रेन प्लेटफार्म पर लगी तो जनरल बॉगी में खिड़की से अंदर घुस गया। फायदा हुआ की किनारे खिड़की वाली सीट मिल गयी। मैं बहुत थक गया था। कुछ खाने की इच्छा नहीं हुई। बस रास्ते भर मधु की निश्चिलता की जीत के बारे में सोचता रहा। सोचता रहा की पढ़ालिखा परिवार भी जिस लड़की को पाल पोस कर बड़ा करता है उसपर भरोसा क्यों नहीं करता। परिवार के भरोसे की कमी के कारण मधु को लगभग एक साल तक कितनी मानसिक यंत्रणा झेलनी पड़ी ।फिर भी मैं खुश था अवसाद जैसी स्थिति से गुजरते हुए भी उसने अपने साहस और बुद्धि के बल पर खुद को सही साबित कर दिखाया था। अंततः परिवार वालों ने उसे सही माना। 


x x x x x xx x x x x x

मुजफ्फरनगर से वापस लौटा तो एक नया परिवार भी साथ लाया था। मधु के भाइयों से रिश्ता बन गया था। उसके छोटे भाई मोदी रबड़ लिमिटेड, मोदीपुरम, मेरठ में सिस्टम एनालिस्ट थे। उनकी चिठ्ठी नियमित रूप से आने लगी थी। अपने चिठ्ठियों में वे मधु का हाल-समाचार भी देते। मधु की चिठ्ठी भी आती थी लेकिन कम। उसकी चिठ्ठियों में मध्यवर्गीय परिवार की लड़कियों से जुड़ी विडंबना की झलक मिलती थी। उसकी शादी काफी संपन्न घर में हुई थी। लेकिन संपन्नता से ओतप्रोत परिवार में उसकी आकांक्षाओं की कोई कद्र नहीं थी। मानो संपन्नता ने आकांक्षाओं को गिरवी बना लिया था। एक सृजनशील महिला के लिए यह एक त्रासदी से कम नहीं थी। लगभग एक साल बाद उसने लिखा, " सारी सृजनशीलता ताखे पर रख गई। अब तुम्हारा भगीना आ गया है आकांक्षाओं की रेत पर दूब बनकर। भैया की शादी कुछ महीने बाद होने वाली है। उसवक्त मुजफ्फरनगर जाऊँगी। तुम भी आना। भगीने से मिलने।"

मधु के छोटे भाई की शादी ऋषिकेश में हो रही थी। मैं भी मुजफ्फरनगर गया। ऋषिकेश बारात जाएगी यह सुनकर इसबार मेरी एक मित्र का भाई भी साथ गया। शादी में मधु से दूसरी बार मुलाकात हुई। इसके बाद कोई मुलाकात नहीं हो सकी। लेकिन पापा का निधन हुआ तो मैं एम ए में पढ़ रहा था। तब मधु के भाई कृष्ण कुमार ने पढ़ाई पूरी कर मोदी रबड़ लिमिटेड में मैनेजमेंट ट्रेनी के रूप में जॉइन करने के लिए पत्र लिखा। उसने लिखा, " जीजा जी ( मधु की बड़ी बहन के पति मोदी रबड़ में मैनेजिंग डायरेक्टर के पर्सनल सेक्रेटरी थे) से बात हो गयी है। उन्होने बोला है जब चाहो आकर जॉइन कर लो।"


 उनदिनों मैं पढ़ाई के साथ साथ हरपक्ष भी निकाला करता था।मैंने लिखा , "परेशानी तो है मगर मुझे नौकरी नहीं करनी। पत्रकारिता में ही रहना है। " तब उसने पूछा हरपक्ष को क्या मदद की जा सकती है। जवाब में मैंने लिखा संभव हो तो मोदी रबड़ का विज्ञापन दिलवाने के बारे में पता करना। बहुत आश्चर्य हुआ जब वापसी डाक से ही मोदी रबड़ का विज्ञापन आ गया। साथ ही अलग से चिठ्ठी में लिखा था, " विज्ञापन आदेश समय पर जाए या ना जाये साल में दस विज्ञापन जब मन करे छापकर भेज देना।" 


यह मात्र संस्मरण नहीं बल्कि मानवीय रिश्तों एवं परिवार समाज मे लड़कियों की स्थिति की जीवंत गाथा है। कई वर्ष बीत गए लेकिन याद करने पर लगता है बस कल की ही तो बातें हैं। यादों के परदे पर सारी बातें, सारी घटनायें एक-एक कर आने लगती है।











No comments: