Tuesday 8 December 2009

वाहवाही 24x7

बिहार में नीतीश सरकार के चार साल पूरे हो गए। इस मौके पर पिछले 24 नवंबर को राज्य में सरकारी स्तर पर काफी जोश-खरोश का माहौल रहा। सरकार ने अपनी उपलब्ध्यिां गिनाईं तो विपक्ष ने विफलताओं का रिकार्ड पेश किया। तात्कालिक तौर पर इस जश्न का सर्वाधिक फायदा मीडिया घरानों ने उठाया। राज्य के अखबारों में राज्य सरकार की ओर से काफी एडवरटोरियल छपे। सरकारी खजाने से करोडो रुपए मीडिया घरानों को दिए गए। इन एडवरटोरियलों को पढ़ने से सचमुच ऐसा लगता है कि बिहार में सुशासन स्थापित हो चुका है। ऐसे पहले से भी मुख्यमंत्राी को सुशासन बाबू का खिताब मीडिया वाले दे चुके हैं।
  मगर इन एडवरटोरियलों की अंदरूनी कहानी को जानने पर जो तथ्य सामने आते हैं वे काफी चैंकाने वाले हैं। सचाई यह है कि मीडिया वेश्यावृति पर उतर आई है। विज्ञापन के तौर पर जो एडवरटोरियल छपे हैं, उसे राज्य के सूचना व जनसंपर्क विभाग ने जारी तो जरूर किया है, लेकिन उसे तैयार किया है उन अखबारों ने जिन अखबारों में वे एडवेटोरियल छपे हैं।
सीधे  शब्दों में कहें तो जिस तरह एक वेश्या सजधज कर ग्राहक खोजती है, ठीक उसी तरह मीडिया वाले एडवरटोरियल तैयार कर सरकार के पास ले जाते हैं और जो ज्यादा गुणगान करने वाला लगा, उसे छापने की मंजूरी मिलती है। निष्पक्षता का दंभ भरने वाली मीडिया की यह काली करतूत सचमुच निदंनीय है।
  सरकार तो अपनी वाहवाही लूटने की कोशिश करेगी ही, लेकिन लोकतंत्र में प्रहरी का काम करने का दावा करने वाली मीडिया जब बिल्कुल बिकाऊ
हो जाती है तो सचमुच संकट पैदा हो जाता है। जनता को सही-सही जानकारी कैसे मिले, यह समस्या उठ खड़ी हो जाती है। बिहार में फिलहाल ठीक यही स्थिति पैदा हो गई है। सरकार के कामकाज का सभ्यक मूल्यांकन करने के बजाए मीडिया ढोल बजाने में लगी हुई है। मीडिया और खासकर हिंदी मीडिया, प्रशासन और सरकार के काम के अंतर को समझ नहीं पा रही और लगातार एकतरफा तस्वीर पेश करती जा रही है।
  यही कारण है कि लोगों की जुबान पर, खासकर शहरी इलाकों में हर जगह यह बात छाई हुई है कि नीतीश राज में शिक्षा का काफी विकास हुआ। जबकि हकीकत ठीक विपरीत है। नीतीश सरकार ने शिक्षा को बीस साल पीछे धकेल दिया है। बिना किसी जांच-पड़ताल के लाखो अप्रशिक्षित प्राथमिक शिक्षकों की बहाली कर सरकार ने शिक्षा की बुनियाद को ध्वस्त कर दिया है। दो तिहाई बहाल शिक्षक पूरी तरह अयोग्य हैं। सैंपल सर्वे में यह तथ्य उजागर हुआ है कि उन्हें खुद अपना नाम तक सही-सही लिखने नहीं आता। वैसे में ये बहाल शिक्षक कौन सी और किस तरह की शिक्षा दे रहे हैं, इसकी जांच पड़ताल कोई नहीं कर रहा। इतना ही नहीं बिना कोई वैकल्पिक व्यवस्था किए सरकार ने पटना विश्वविद्यालय में इंटर की पढ़ाई पिछले साल से बंद कर दी। घोषणा तो इस साल से सारे विश्वविद्यालयों में इंटर की पढ़ाई बंद करने की हुई थी। लेकिन ऐसा निर्णय लेते वक्त सरकार ने इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया कि आखिर छात्र पढ़ेंगे कहां। राज्य सरकार के कितने हाई स्कूल इस लायक हैं जो इंटर की शिक्षा दे सकेगंे। कितने स्कूलों के पास आधारभूत संरचना और इंटर के छात्रों को पढ़ाने योग्य शिक्षक हैं। अगर ऐसी स्थिति में यह कहा जाए कि सरकार जानबूझ कर ऐसी स्थिति पैदा कर देना चाहती है कि छात्र प्राइवेट कोचिंग संस्थानों में पढ़ने को बाध्य हो जाएं तो क्या गलत होगा। जिस किसी की सलाह पर सरकार ने ऐसा निर्णय किया है निश्चित तौर पर उसकी सांठगांठ कोचिंग संस्थान वालों से है।
  शिक्षण संस्थानों में तीस से चालीस प्रतिशत पद रिक्त हैं। लेकिन इन पदों पर योग्य लोगों की बहाली की कोई कोशिश नहीं हो रही और शिक्षा का स्तर ऊंचा उठाने का दावा किया जा रहा है। यह स्तर कितना ऊंचा उठा है इसकी पोल इसी तथ्य से खुल जाती है कि राज्य के इंजीनियरिंग, एग्रीकल्चर कालेजों में दाखिला लेने वाले छात्र नहीं मिल रहे। सैकडो सीटें खाली हैं। राज्य में बोलचाल की भाषा में एक मुहाबरा बहुत प्रचलित है कि दक्षिण और महाराष्ट्र के इंजीनियरिंग कालेज तो बिहार के छात्रों के बूते चलते हैं। एक ओर ऐसी स्थिति है और दूसरी ओर बिहार के कालेजों को छात्र नहीं मिल रहे। यह विरोधाभास आखिर क्यों हैं। क्या सरकार ने कभी इस ओर ध्यान देने की कोशिश की है, मीडिया वालों ने सचाई बताने की कोशिश की है। शिक्षा के क्षेत्र में राज्य सरकार की काली करतूतों पर देश के प्रमुख शिक्षाविद अनिल सदगोपाल ने सही कहा है कि राज्य सरकार जो कर रही है उसका नतीजा राज्य के लोग 20 साल बाद भुगतेंगे।
  राज्य सरकार ने प्रगतिशील होने का दिखावा करते हुए बड़े जोश-खरोश के साथ भूमि सुधार आयोग का गठन किया था। लेकिन आयोग ने जब अपनी रिपोर्ट दी तो सरकार के होश गुम हो गए। प्रगतिशीलता का नकाब उतर गया और मुख्यमंत्री ने अपने वोट बैंक के दबाव में साफ-साफ कह दिया कि सरकार बटाइदारों के हित में आयोग की जो अनुशंसाएं हैं, उसे लागू नहीं करेगी। मुख्यमंत्री जब इस तरह सीधे तौर मैदान छोड़कर पीछे भाग गए तो उनके बचाव में चापलूस पत्रकार आ गए और कहने-लिखने लगे कि नीतीश जैसे समन्वयवादी से भूमि सुधार को लागू करवाने की अपेक्षा करना उनके साथ नाइंसाफी होगी।
  शिक्षा और भूमि के बाद अब आएं बिजली के मामले पर। राज्य में बिजली की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है। अगले पांच साल तक कोई राहत मिलने की उम्मीद नहीं है। नीतीश सरकार के सत्ता के आने के बाद बहुत हल्ला हुआ कि अब बिजली की स्थिति सुधर जाएगी। शुरुआती दौर में नए थर्मल पावर प्लांट लगाने के 28 निवेश प्रस्ताव आए। ये प्रस्ताव 83, 551 करोड़ रुपए से अधिक के थे। लेकिन पिछले साल में निवेशकों ने एक पैसा भी निवेश नहीं किया। आधिकारिक सूत्रों का ही कहना है कि टाटा, रिलायंस, एस्सार समेत 11 निजी निवेशकों ने थर्मल पावर प्लांट लगाने के प्रस्ताव दिए थे। लेकिन काम आगे नहीं बढ़ सका। जबकि इसी अवधि में हरियाणा ने 5000 मेगावाट का थर्मल प्लांट लगा लिया। इनमें से दो प्लांटों में बिजली उत्पादन शुरू भी हो चुका है। इतना ही नहीं केंद्र सरकार की राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतिकीकरण योजना के तहत स्थापित होने वाले सबस्टेशनों का काम भी पूरा नहीं हो पा रहा है। सब स्टेशन के लिए जमीन राज्य सरकार को देनी है लेकिन सरकार जमीन नहीं दे पा रही। राज्य सरकार ने 65,434 गांवों में बिजली पहुंचा देने का दावा किया है, जबकि हकीकत है कि अब तक सिर्पफ 49,681 गांवों में ही बिजली पहुंची है।

बिजली के बाद फुड प्रोसेसिंग के क्षेत्र में 1415 करोड़ के 49, स्वास्थ्य के क्षेत्रा में 2088 करोड़ के 19, मेडिकल, इंजीनियरिंग और प्रबंधन संस्थान खोलने के लिए 204 करोड़ के 18, पहले से स्थापित चीनी मिलों के विस्तार के लिए 537 करोड़ के 7 प्रस्ताव आए थे। पिछले चार साल में 1.2 लाख करोड़ से ज्यादा निवेश के कुल 209 प्रस्ताव आए थे। लेकिन हकीकत में इसका मात्र एक प्रतिशत एक हजार करोड़ से कुछ ज्यादा का कुल निवेश पिछले चार साल में हुआ है। टाटा, अंबानी और मित्तल जैसे उद्योगपति दुबारा झांकने तक नहीं आए हैं। इन सबके बावजूद दावा किया जा रहा है या ढोल पीटा जा रहा है कि बिहार विकास के रास्ते पर बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है। अब तो दावे और हकीकत का अंतर ही बताएगा कि बिहार कितना और किस तरह का विकास कर रहा है। 

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