Saturday, 12 December 2009

पैंतीस... मिंस... थर्टी फाइव !

मुहल्ले की दुकान पर एक दिन खड़ा था। 12-13 साल की एक लड़की आई और दुकानदार से कार्नफलैक्स देने को बोली।  दुकानदार ने रैक से निकाल कर कार्नफलैक्स दे दिया। लड़की ने पूछा, कितने पैसे दूं। दुकानदार बोला, पैंतीस रुपए। लड़की गुमशु रही। दुकानदार दो-तीन बार पैंतीस-पैंतीस कहता रहा। अंत में लड़की बोली, मिंस। तब दुकानदार बोला, थर्टी फाइव। थर्टी फाइव कहने पर लड़की समझ पाई, वह पैंतीस नहीं समझ पा रही थी।

  यह है हमारे बदलते मध्यवर्गीय समाज की तस्वीर। बच्चों को हिंदी के अक्षर और अंकों का ज्ञान भी नहीं हो पाता और अंग्रेजी बोलने लगते हैं। स्कूल से ज्यादा न्यू मीडिया चैनल, इंटरनेट का कमाल है, यह सब। दरअसल एक तरह से पूरी दुनिया में एक बार फिर से अंग्रेजी का दबदबा बढ़ने लगा है। अभी ब्रिटिश कौंसिल की एक रिपोर्ट आई है। इस रिर्पोट के बाद अंग्रेजी की वकालत करने वालों की बांछे खिल गई है। नई पीढ़ी के लोकप्रिय उपन्यासकार चेतन भगत से लेकर अंग्रेजी के अनेक अखबार बखान करने में लग गए हैं कि अंग्रेजी के सिवा कोई चारा नहीं। हिंदी के समर्थकों को मानों साप सूंघ गया है। वे करें तो करे क्या।


  ब्रिटिश कौंसिल की रिपोर्ट ‘इंगलिश नेक्सट इंडिया’ में बताया गया है किस तरह अगले कुछ वर्षों में चीन में अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या भारत से अधिक हो जाएगी। ‘कम्युनिस्ट’ चीन के ग्लोबलाइजेशन के बाद की एक बहुत बड़ी उपलब्धि के तौर पर इसे परोसा जा रहा है। बताया जा रहा है कि अगर हम नहीं चेते तो अंग्रेजी की जानकारी में वह चीन हमें पछाड़ देगा, जहां अभी कुछ वर्ष पहले तक चीनी भाषा को छोड़कर अन्य कोई भाषा लोग जानते तक नहीं थे।

 एक अंग्रेजी अखबार में लिखे लेख में चेतन भगत ने कहा है कि अंग्रेजी हमें इंटरव्यू फेस करना सीखाती है। यह हमें सबसे बेहतर टेक्सट बुक उपलब्ध कराती है और दुनिया से इंटरनेट के जरिए साक्षात्कार कराती है। चेतन भगत की कही इन बातों को अपने निजी अनुभवों से जोड़कर देखता हूं तो कुछ गलत नहीं दिखता। और ना ही कुछ नया लगता है।

 याद आता है अपने कालेज का दिन। देहात से आकर पटना कालेज में पढ़ रहा था तो बी.ए. (अर्थशास्त्र आनर्स ) के क्लास में अधिकांश लड़के अंग्रेजी में ही पढ़ते थे। लेकिन कुछ छात्र हिंदी में पढ़ते थे। इसी में मेरा मित्र प्रियदर्शी भी था। बिहार आंदोलन से सक्रिय रूप से जुड़ा होने के कारण हिंदी के प्रति उसका अपना लगाव था। वह मुझे भी बार-बार हिंदी माध्यम अपनाने को उकसाता था। लेकिन तब तक मैं अंग्रेजी में पढ़ने का अभ्यस्त हो चुका था। हिंदी की किताबें दोयम दर्जे की लगती थी। और फिर उतनी किताबें थी भी नहीं। जो थी उनमें कई जगह अनुवाद गलत या फिर इतनी क्लिष्ट तरीके से लिखी हुई होती थी कि बात समझ में नहीं आती थी। इसके उलट मार्शल, पिगु, राबर्टसन, केन्स सुम्पीटर, डाल्टन, कुजनेटस, क्राउथर, हिक्स जैसों की किताबों की बात ही कुछ और थी। प्रियदर्शी के बार-बार जोर देने पर मैं कहता था, मैं हूं तो पूरी तरह हिंदी का समर्थक। लेकिन समर्थक होने का मतलब यह नहीं कि जो जानकारी मैं हासिल कर सकता हूं, उसे नहीं हासिल करूं। आज तीस साल बाद जब कभी अंग्रेजी-हिंदी की बातें चल पड़ती है तो प्रियदर्शी कहता है, कालेज में कही तुम्हारी बातें ज्यादा ठीक थी।

  मेरे कालेज के दिनों में अंग्रेजी पढ़ने के जो फायदे थे वे आज की बदलती दुनिया में और बढ़ गए हैं। इसके लिए हिंदी के मठाधीश भी कम जिम्मेदार नहीं। आज भी हिंदी में वैसी किताबें नहीं जो अंग्रेजी से टक्क्र ले सकें। हिंदी में वैसे अखबार नहीं, जो अंग्रेजी का मुकाबला कर सकें। अगर किसी छात्र को देश-दुनिया के बारे में अपनी जानकारी बढ़ाते रहना है तो तमाम कमियों के बावजूद उसे अंग्रेजी अखबारों का ही सहारा लेना पड़ेगा। हिंदी का बाजार विस्तृत होने के बावजूद हिंदी अखबारों के कंटेट इस लायक नहीं बन पाए है कि अंग्रेजी पढ़ना छोड़ दिया जाए।

 हिंदी का विकास अंग्रेजी का विरोध कर नहीं किया जा सकता। बल्कि हिंदी का विकास हिंदी को समृद्द बना कर होगा। अगर हम हिंदी के विकास के उपक्रम में अंग्रेजी का विरोध शुरू कर देंगे तो इससे हिंदी या हिंदी वालों का भला नहीं होने वाला। अपने पेशे, पत्रकारिता की ओर ही देखता हूं तो यह बात शत प्रतिशत सही लगती है। धर्मवीर भारती, रघुबीर सहाय, राजेंद्र माथुर, जैसे कई नाम हैं जिन्होंने हिंदी पत्रकारिता के लिए अमूल्य काम किया , जबकि उन सबों ने पढ़ा-पढ़ाया अंग्रेजी था। लेकिन अंग्रेजी की जानकारी से खुद को अलग रखकर आज हिंदी पत्रकारिता में जो बड़ी फौज खड़ी हो गई है वह क्या कर रही है, यह हम सब अच्छी तरह देख रहे हैं। यहां मैं ज्यादा लंबी बातें नहीं करना चाहता, लेकिन यह जरूर कहना चाहूंगा कि इतने दिनों के प्रयास के बावजूद हम आज तक हिंदी में कोई ऐसी न्यूज एजेंसी तक नहीं खड़ा कर सके जो रायटर, एएफपी तो दूर पीटीआइ का भी मुकाबला कर सके। आज अधिकांश हिंदी अखबार पीटीआइ की सेवा बंद कर चुके हैं, क्योंकि उनके यहां अब अंग्रेजी जानने वाले इने-गिने लोग ही डेस्क पर रह गए हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि आप इनकी हर खबरों में तथ्यों की गलतियां देख सकते हैं। अगर प्रधानमंत्री कहते हैं कि सीबीएसएइ को दसवीं की परीक्षा समाप्त नहीं करनी चाहिए, तो हिंदी अखबारों  में छपता हैः दसवीं की परीक्षा समाप्त नहीं होगीः प्रधानमंत्री ।

  लेकिन हां, अंग्रेजी पढ़ना और अंग्रेजी दां बनना, बिल्कुल दो बाते हैं। अंग्रेजी पढ़ने का मतलब यह नहीं कि हम अपने समाज को भूल जाएं। अपनी मातृभाषा को त्याग दें। चेतन भगत कहते हैं कि हिंदी हमारी मां है तो अंग्रेजी पत्नी। लेकिन पत्नी के प्रेम में पागल होकर मां की ममता को भूल जाना कतई सभ्य होने का सूचक नहीं होगा। हम चाहे जितनी अंग्रेजी जान लें, अगर ऊपर उल्लेखित लड़की की तरह पैंतीस का अर्थ नहीं समझ पाएंगे तो हमारा विकास अधूरा रहेगा, हम असम्य ही बने रहेंगे।

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