Tuesday 8 December 2009

प्रभाष जी के नहीं रहने पर

  जनसत्ता के संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी अब इस दुनिया में नहीं रहे। उनके निधन से हिंदी पत्रकारिता में एक गहरा धक्का लगा है। लेकिन उनके निधन के बाद अखबारों में खबरों और उनकी याद में लिखे गए लेखों को लेकर विवाद गहराया है और पत्रकारिता की साख गिरी है। प्रभाष जी के विचार या कर्म चाहे जो भी रहे हों, कोई उनसे सहमत हो या नहीं, लेकिन इतना तो जरूर है कि एक लंबे समय तक वे हिंदी पत्रकारिता के अग्रदूत बने रहे थे। ऐसे अग्रदूत के निधन की खबर को कुछ अखबारों ने जगह न देकर या समुचित जगह नहीं देकर उनका अपमान नहीं, वरन पत्रकारिता की साख के साथ खिलवाड़ किया है।

  दूसरी ओर उनके निधन पर ढेर सारे संस्मरण या उनकी याद में उनके गुणों को बयां करने वाले ढेर सारे लेख विभिन्न अखबारों में छपे हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश इनमें अधिकांश लेख एकतरफे नजरिए के साथ लिखे गए हैं।
जो नई पीढी प्रभाष जी के पुराने लेखों व विचारों से अवगत नहीं है, उसे उसके बारे में कुछ नहीं बताया गया है। या यूं कहें कि उन बातों को जानबूझ कर छुपा लिया गया।

  इस बात से कतई इनकार नहीं कि प्रभाष जी शब्दों के जादूगर थे। उनकी लेखनी राजनीति से लेकर कला-साहित्य, धर्म-संस्कृति और खेल ;खासकर क्रिकेट तक बड़ी बुलंदी के साथ चलती थी। इसके बावजूद उनकी लेखनी में एकरूपता नहीं थी। आज जिसे वे गरियाते थे, उसके साथ कल गलबहियां करते भी दिखते थे। या आज जिसके साथ गलबहियां करते थे, उसे कल गरियाने भी लगते थे। उदाहरण के तौर पर वे कमंडल यात्रा के साथ थे लेकिन बाद के बदले समीकरणों में भाजपा उनके लिए अछूत बन गई थी। इसी तरह एक जमाने में वे चंद्रशेखर के कटु आलोचक थे लेकिन बाद के दिनों में चंद्रशेखर के साथ देश को संवारने के अभियान में जुट गए थे। यह कोई अकेला उदाहरण नहीं है। प्रगतिशील विचार के वाहक प्रभाष जी ने किस तरह सती प्रकरण के दौरान दकियानुस विचारों को महिमामंडित किया था और सती के पक्ष में लंगोटा बंाध कर मैदान-ए-जंग में उतर आए थे, यह उस समय जनसत्ता पढ़ने वालों से छुपा नहीं है। इसी तरह आॅपरेशन ब्लू स्टार का समर्थन कर उन्होंने कौन सी धर्मनिरपेक्षता का समर्थन किया था, इसका जवाब खुद प्रभाष जोशी ही दे सकते हैं।

  उनके निधन के बाद चापलूसी भरे लेखों में कहा गया है कि प्रभाष जी के बड़ों-बड़ों के साथ संबंध थे, लेकिन उन्होंने इन संबंधें को अपने पेशेगत जिम्मेवारियों के रास्ते आड़े नहीं आने दिया। यह सरासर झूठ नहीं, तो सच भी नहीं है। सती के सांस्कृतिक-सामाजिक मुद्दे को छोड़ भी दें तो पत्रकारिता की रोटी-दाल राजनीति के क्षेत्र में भी उन्होंने निष्पक्षता का निर्वाह नहीं किया। जबकि पत्रकारिता के पेशे में आने वाले हर किसी को पहला पाठ निष्पक्षता का ही पढाया जाता है। कभी आडवाणी तो कभी वीपीसिंह, कभी चंद्रशेखर तो कभी लालू प्रसाद या नीतिश कुमार के पक्ष में वे इस तरह मैदान में उतर आते थे, मानों वे पार्टी के प्रवक्ता हों। समय-समय पर उनके आलेखों में पार्टी के झंडाबरदार होने की गूंज सुनाई पड़ती थी। जनपक्षधरता का चोंगा ओढकर वे बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों के साथ जिस तरह बांसुरी बजाने लगते थे उससे पत्रकारिता की निष्पक्षता आहत होती थी। प्रभाष जी सर्वोदय, प्रजानीति या एवरीमेंस वाली पत्रकारिता जनसत्ता में भी करते रहे। ऐसा करते वे इस बात को भूल गए कि सर्वोदय, प्रजानीति या एवरीमेंस का प्रकाशन एक खास आंदोलन के प्रचार-प्रसार के लिए हो रहा था , जबकि जनसत्ता मेनस्ट्रीम का अखबार था। घोषित रूप से वह किसी दल या संगठन का मुखपत्र नहीं था। इतना ही नहीं बाद के दिनों में तो महिमामंडन के बाद उन्होंने प्रशंसक पत्रकारों की टोली बना ली थी और इस टोली के बीच तरह-तरह की रेवड़ियां भी बांटा करते थे। इस टोली में सत्ता की डुगडुगी बजाने वाले कई तथाकथित पत्रकार भी शामिल थे और इन्हीं दलालों के बीच उन्हें अपना उत्तराधिकारी भी नजर आने लगा था।
   इन सबके बावजूद यह सच है कि प्रभाषजी जैसा पत्रकार बार-बार पैदा नहीं होता। हिंदी पत्रकारिता में आडंबरी शब्दों के स्थान पर उन्होंने जिस तरह बोलचाल की भाषा को तरजीह दी उसकी जितनी भी प्रशंस की जाए कम है। गुण-दोष हर किसी में होता है। अगर हम इसकी एकतरफा चर्चा करते हैं तो यह चमचागिरी होती है, पत्रकारिता नहीं। दुख इस बात का है कि प्रभाष जी के निधन पर अधिकांश लेखकों ने चमचागिरी की, उनके योगदान का सभ्यक मूल्यंाकन नहीं। इस तरह प्रभाष जी ने अपनी लेखनी से पत्रकारिता का जो अहित अपनी जिंदगी में किया, उस सिलसिले को उनकी चापलूसी करने वालों ने उनके निधन के बाद भी जारी रहा। यह सब कुछ लिखने का मतलब प्रभाष जोशी की आलोचना करना नहीं, बल्कि जो कुछ हुआ है उससे सावधान करना है ताकि भविष्य में वे गलतियां नहीं दुहराई जाएं।

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